बिटको दंत मंजन की भूली बिसरी यादें

 किस-किसने चमकाए है दाँत 😀

बिटको के काले मंजन से 😁😁

✍ जावेद शाह खजराना (लेखक)


बिटको के काले मंजन की ये नंन्ही काँच की शीशी नई जनरेशन के लिए अजूबा जरूर हो सकती है ,लेकिन हमारे बचपन में सुबह की शुरुआत इससे निपटकर ही होती थी। 😃 कभी मार खाकर तो कभी बेमन उसे मुँह लगाना ही पड़ता।


इस भागम-भाग जिंदगी में हम बहुत सी बातें लगभग भूल चुके है , जो कभी रोजमर्रा ज़िंदगी का अंग हुआ करती थी । इन भूली बिसरी यादों को हमने कभी शेअर भी नही किया , इसलिए आजकल की नई पीढ़ी इस बारे में बिल्कुल भी नहीं जानती। 😊


लेकिन 1980-90 से लेकर 2000 दशक तक बिटको एक जाना -पहचाना नाम था।👍


जो लोग इस काले मंजन से दूर भागते उन्हें भी ये गाँव-खेड़ों में बसे दादा-दादी या नाना-नानी के यहाँ पाहुना बनने अक्सर दिख जाया करता।☺

कभी खुशी-खुशी  , तो कभी नाक मुंह सिकोड़कर इसे मजबूरन वापरना ही पड़ता। खैर सबकी लाचारी भी रहती कि चलो भईया कोयले के खुरदुरेपन से तो ये बिटको ही भला।


कुल मिलाकर बिटको अपने बचपन में जानी- पहचानी वस्तु थी , जिसे हमें बरसों तक झेलना पड़ा। 😀


दोस्तों पुराने ज़माने की बातें भी निराली थी।

वो दिन भी क्या दिन थे 😑 जब टूथब्रश को देखकर सोचा करते थे कि काश हमारे पास टूथब्रश होता।

नीम औऱ बबूल की सस्ती दातून से तो मसूड़ों से खून निकल पड़ता। 

अब तो जमानेभर के जिगजैग -फिकजेक ना जाने कैसे कैसे मार्डन ब्रश मॉर्केट में मारे-मारे फिर रहे हैं। 

आजकल तो ब्रश करने की भी जरूरत नहीं। केमिकल से कुल्ला करो और चलते बनो। 😁


बचपन में उंगली ही हमारा टूथब्रश हुआ करती थी।

उसी से रगड़ रगड़कर मिनटों दांतों को घिसा करते।

 ऐसा करने से दाँत तो नहीं , हाँ उंगली के पोर जरूर चमक जाते ।



दाँत घिसने के चक्कर में उंगली के पोर की रेखाएँ तक गायब हो जाती। दांतों से ज्यादा उंगलियों की पोरे गोरी दिखने लगती। ज्यादातर लोग उंगली को ही ब्रश बनाकर दाँत को घिसा करते थे। 😘


वैसे तो दाँत मांजने के लिए कोयला भी किसी कोलगेट से कम नहीं था। कोयले से दांत साफ करने के बाद दांतों के बीच कोयले के कण को निकालना बड़ा गन्दा लगता। 

उस पर भी ये मुसीबत की बिटको के काले मंजन के इस्तेमाल से दांत के साथ मसूड़े भी काले दिखते। 😊


बहुत से बच्चे इस झंझट से बचते , दाँत ही नहीं मांजते।बासी मुँह लिए फिरते 😁😁😁


उस वक्त मार्केट में 3 रंग के मंजन ही ज़्यादा चलन में थे।

काला , लाल और सफ़ेद ।


गरीब लोग कोयले की रगड़ से खुश हो जाते तो मध्यमवर्गीय बिटको के काले मंजन को बाथरूम के पटिये पर सजाकर रखते। लिक्विड पेस्ट तो दुर्लभ था भय्या।


बिटको का मंजन चारकोल से बना हुआ होता ।

काँच की छोटी शीशी में मेडिकल और किराना की दुकानों पर 2 से 3 रुपए के बीच मिलता। इससे मंजन करते ही मुँह में ताजगी और ठंडक महसूस होती। 

बच्चे इससे तो जैसे-तैसे काम चला लेते लेकिन डाबर के लाल दंत मंजन से हाय तौबा। 

उफ्फ डाबर के लाल दंत मंजन से बच्चों का मुँह जलने लगता। बच्चे इस मंजन को हाथ भी नहीं लगाते । बड़े बूढ़ों का ये फेवरेट मंजन था। बच्चे इससे घबराते।

 अल्लाह जाने कम्पनी वाले उसमें क्या पीसकर मिलाते थे।


वैसे हमारा मनपसंद मंजन कोलगेट का सफेद वाला पावडर होता जो लोहे के डिब्बे में आता ।

महीन पिसा हुआ सफेद झग्ग ।

मंजन मीठा औऱ ठंडा भी लगता।

मंजन करते करते उसे अक्सर चाट भी जाते। 😁

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नागदा नाम कैसे पड़ा?

पार्श्वगायक महेंद्र कपूर इंदौर में